=ग़ज़ल=
मुक़द्दस लिबास पहने हुए मकान में हूँ!
ए ज़मीन! अब में तेरी अमान में हूँ!
ज़िन्दगी महफिलों में खर्च कर दी हमने,
अब आज मैं इस बियाबान में हूँ!
अब हिंदू - मुसलमान की बातें रहने भी दो,
ये ही बहुत है की मैं इंसान में हूँ!
माथे पे शिकन, न आंखों में कोई खौफ है,
मुझे फख्र है, की मैं हिंदुस्तान में हूँ!
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= चंद अशआर=
शहर में शेर की मांद कहाँ से लाऊं!
बेटा! ज़मीं पे चाँद कहाँ से लाऊं!
मेहनत और इमानदारी के पैसों में,
अम्मा! कोरमा - नांद कहाँ से लाऊं!
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तख्ती हमारे नाम की अब दर से हटा दी!
चादर कोई पुरानी थी, बिस्तर से हटा दी!
बच्चों ने नए ढंग से कमरों को सजाया,
तस्वीर भी हमारी अब इस घर से हटा दी!
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वो जुबां की तल्खियां पसंद नहीं करते!
समंदर भी टूटी कश्तियाँ पसंद नही करते!
जो ऊँची-ऊँची इमारतें बनते हैं वो,
हमारी गरीब बस्तियां पसंद नहीं करते!
हवा भी पाबन्द-ऐ-वफ़ा नहीं इसलिए,
अब फूल भी तितलियाँ पसंद नहीं करते!
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