-ग़ज़ल-
दुश्मन नहीं कोई मेरा इस जहान में!
अपनों से खौफ है मुझे अपने मकान में!
फूलों ने, पत्थरों ने, खिजां ने, बहार ने,
तोहफे मैं दी हैं गालियां अपनी जुबान में!
बेचूं मैं किस तरह, कि खरीदार ही नही,
कांटे हैं बस बचे हुए मेरी दुकान में!
चलता रहा हमेशा मैं एक काफिले के संग,
अब कोई हमसफ़र नही, इस इम्तिहान में!
अखलाक कर बुलंद कुछ इस तर्ज़ से 'ऐ दिल'
तुझसा हो फिर न कोई भी सारे जहान में!
-दिलशेर 'दिल' दतिया
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